रोज की तरह आ गयी वो...
रोज की तरह बच्चा देखता रहा अपनी भूरी आँखे भरके...
हाथ उठाये ... दिल भरमाये ...
रोज की तरह ... फिर एक बार आस लगाये...
"कितने सुन्दर रंग... कितने नाजुक पंख...
मेरे जान के प्यारे ....तुम साथ क्यों नहीं रहते..
कितना सुंदर होगा वो जहां.. जब हम हरदम साथ साथ रहेंगे.. "
फैले हुए हाथ पे रोज की तरह फिर आ बैठी वो...
मासूम ... अनजान...
इतना फैला चाहत का वो रंग... ना जाने कब फैली हुई मुट्ठी कस गयी...
एक हलकी सी लड़खड़ाती कोशिश. ..
साथ रहने की वो चाहत जबतक जान तक पोहोचती, पंखो के रंग उंगलियों पे अस्त्यव्यस्त...
खुली मुट्ठी में बेजानसे दो पंख ...
कुछ कहानियाँ शायद अधूरी ही अच्छी होती है... शायद .. पता नहीं !!!
- भक्ति आजगांवकर
- चित्र आंतरजाल से साभार
Ek navi kashish....beautiful
ReplyDeleteThanks Shashank...
Deleteमग एक दिवस एका भुंग्याने घेतले फुलपाखराचे रूप
ReplyDeleteजाऊन बसला त्या रम्य मुठ्ठीत
जाणवून वास त्या अस्ताव्यस्त रंगांचा, हबकला पण निग्रह
वळताच ती मुठ्ठी मात्र, थरथरली धरणी हलले आकाश
दंशली ती विद्युल्लता मुठ्ठीतून त्या क्रूर मनात
मिटवूनी विस्कट रंग, आरक्त भरले मुठ्ठीचे अंग
उगवला सूड, निर्मळ दिसे ते आकाश
शिकली मुठ जरी वेदना... भ्रमरा तितलीची आठवण
पण तो तळवा क्रूर नव्हता हो...
Deleteछोट्या निरागस मनाचाच ... फक्त वेडा हट्ट...
कधी अश्या हट्टापायी कुणाचा जीव जावा हा फक्त दुर्दैविलास ... !!!
भ्रमराचे मात्र धन्यवाद्...