रोज की तरह आ गयी वो...
रोज की तरह बच्चा देखता रहा अपनी भूरी आँखे भरके...
हाथ उठाये ... दिल भरमाये ...
रोज की तरह ... फिर एक बार आस लगाये...
"कितने सुन्दर रंग... कितने नाजुक पंख...
मेरे जान के प्यारे ....तुम साथ क्यों नहीं रहते..
कितना सुंदर होगा वो जहां.. जब हम हरदम साथ साथ रहेंगे.. "
फैले हुए हाथ पे रोज की तरह फिर आ बैठी वो...
मासूम ... अनजान...
इतना फैला चाहत का वो रंग... ना जाने कब फैली हुई मुट्ठी कस गयी...
एक हलकी सी लड़खड़ाती कोशिश. ..
साथ रहने की वो चाहत जबतक जान तक पोहोचती, पंखो के रंग उंगलियों पे अस्त्यव्यस्त...
खुली मुट्ठी में बेजानसे दो पंख ...
कुछ कहानियाँ शायद अधूरी ही अच्छी होती है... शायद .. पता नहीं !!!
- भक्ति आजगांवकर
- चित्र आंतरजाल से साभार